मंगलवार, 2 अक्तूबर 2018

सच में या अफ़साने में / मंटो पागलखाने में


ग़ज़ल 
created by Sanjay Grover











सच में या अफ़साने में
मंटो पागलखाने में

मंटो, तेरे और मेरे
है क्या फ़र्क़ ज़माने में

सच लोगों को भाता हैं
सिर्फ़ रहे जब गाने में

झूठ को मैंने खोया है
अपने सच को पाने में

हर पगले का नाम लिखा
सच के दाने-दाने में

-संजय ग्रोवर
02-10-2018

सोमवार, 6 अगस्त 2018

बच्चे न पैदा करने की सुंदर भावना पर एक निबंध


उनसे मैं बहुत डरता हूं जो वक़्त पड़ने पर गधे को भी बाप बना लेते हैं। इसमें दो-तीन समस्याएं हैं-


1.      बाप बनना बहुत ज़िम्मेदारी का काम है। ऐसे ज़िम्मेदार बाप का दुनिया को अभी भी इंतेज़ार है जो सोच-समझ के बच्चा पैदा करे। वैसे जो सोचता-समझता होगा वो क्या बच्चा पैदा करेगा ?                        
                             
2.    फिर मैं गधा भी नहीं हूं कि किसी भी गधे का बाप बन जाऊं। जो हमारे पिताजी ने नहीं सोचा वो हम सोच लें तो क्या हर्ज़ है ? सोच के नाम पर हम हमेशा पीछे ही जाते रहेंगे क्या 

3.    सिर्फ बाप बनने के लिए दुनिया-भर के गधों से एडजस्ट करना (एक मुहावरे के अनुसार सबको बाप बनाना) मुझे नुकसान में रहना ही लगता है।
                                 
4.    सारी पृथ्वी एक परिवार है, कभी-कभी दूसरों के बच्चों से खेल लेने में हर्ज़ ही क्या है ? मैं तो जब भी घर से निकलता हूं, दूसरों के बच्चों से ही खेलता हूं। घर में अपने पिताजी के बच्चे यानि ख़ुदसे खेलता हूं।

5.     मुझे लगता है कि ‘मैं तो अपना ही बच्चा पैदा करुंगा, दूसरे बच्चों को दूसरे बच्चे ही समझूंगा’ यह घमंडी और स्वार्थी होने की पहचान है।

किसीको आपत्ति ?

-संजय ग्रोवर

04-08-2018


गुरुवार, 21 जून 2018

सच जब अपनेआप से बातें करता है

ग़ज़ल
creation : Sanjay Grover












सच जब अपनेआप से बातें करता है
झूठा जहां कहीं भी हो वो डरता है

दीवारो में कान तो रक्खे दासों के
मालिक़ क्यों सच सुनके तिल-तिल मरता है

झूठे को सच बात सताती है दिन-रैन
यूं वो हर इक बात का करता-धरता है

सच तो अपने दम पर भी जम जाता है
झूठा हरदम भीड़ इकट्ठा करता है

झूठ के पास मुखौटा है किरदार नहीं
सच की ख़ाली जगह वही तो भरता है 


-संजय ग्रोवर
21-06-2018

बुधवार, 9 मई 2018

दो लोगों में इक सच्चा इक झूठा है....

By Sanjay Grover
ग़ज़ल



पहले सब माहौल बनाया जाता है
फिर दूल्हा, घोड़े को दिखाया जाता है

झूठ को जब भी सर पे चढ़ाया जाता है

सच को उतनी बार दबाया जाता है

दो लोगों में इक सच्चा इक झूठा है

बार-बार यह भ्रम फैलाया जाता है


आपस में यूं मिलने-जुलने वालों में

बारी-बारी भोग लगाया जाता है

जिन्हें ज़बरदस्ती ही अच्छी लगती है

उनको घर पे जाके मनाया जाता है

गिरे हुए भी कई बार गिर जाते हैं
कुछ लोगों को यूं भी उठाया जाता है

देते हैं जो सबको भिक्षा की शिक्षा
उनसे ही हर मंच सजाया जाता है

वर्तमान में अगर नहीं कुछ करना हो
मिल-जुलकर इतिहास बताया जाता है

बननेवाले बार-बार बन जाते हैं
फिर भी बारम्बार बनाया जाता है




-संजय ग्रोवर
09-05-2018

बुधवार, 21 मार्च 2018

विज्ञों को सम्मान चाहिए / चमचों को विद्वान चाहिए

ग़ज़ल
PHOTO by Sanjay Grover







विज्ञों को सम्मान चाहिए
चमचों को विद्वान चाहिए

जिनके अंदर शक्ति बहुत है
उनमें थोड़ी जान चाहिए

बुद्वि थोड़ा कम भी चलेगी
बड़े-बड़े बस कान चाहिए


पीठ प चढ़के सर पे चढ़ गए
सबको ही उत्थान चाहिए

आंदोलन वो करके रहेंगे
बस खुल्ला मैदान चाहिए

अंजुलि में श्रद्धा भर लाओ
हमको तो बस दान चाहिए

इज़्ज़त, शोहरत, दौलत-वौलत
सबको बड़ा मसान चाहिए

तुमको हिंदुस्तान चाहिए
और मुझको इंसान चाहिए

हर विचार तो मारा तुमने
अब क्या मेरी जान चाहिए





-संजय ग्रोवर
19/21-03-2018


सोमवार, 19 मार्च 2018

सच क्यों करे भरोसा सबका

 ग़ज़ल
PHOTO by Sanjay Grover







सच को ना औज़ार चाहिए
कुछ पागल तैयार चाहिए

सच क्यों जाए मंदिर-मस्ज़िद
सच को सच्चे यार चाहिए

सच क्यों करे भरोसा सबका !
सच तुमको बीमार चाहिए !

सच ना पंजाबी-मद्रासी
सच को सच्चा प्यार चाहिए

कौन जिया है सच की ख़ातिर
सब को इश्तेहार चाहिए 

सच अपने पैरों प खड़ा है
सच को ना गुरु-द्वार चाहिए
      
करनी है गर सच से दोस्ती
ज़हनो-दिल तैयार चाहिए

झूठों का संयुक्त माफ़िया
सच में पूरी धार चाहिए

सच न माफ़िया, सच न काफ़िया
सच को सच तकरार चाहिए




-संजय ग्रोवर
19/20-03-2018

गुरुवार, 15 फ़रवरी 2018

तजुर्बा और तजुर्बेकार

PHOTO by Sanjay Grover



वे अकेले पड़ गए थे।
कोई समाज था जो उन्हें स्वीकार नहीं रहा था।
कोई भीड़ थी जो उनके खि़लाफ़ थी।
कोई समुदाय था जो उन्हें जीने नहीं दे रहा था।
कोई व्यवस्था थी जो उनसे नफ़रत करती थी।
कोई बेईमानी थी जिसने उनके खि़लाफ़ साजिश रची थी।

मैंने बस थोड़ी-सी मदद कर दी थी, इतना भर कि वो सभल जाएं, मुसीबत से निकल जाएं। ज़्यादा की नहीं बस दस-पांच की।

मेरी हैसियत ही क्या थी ? सिर्फ़ इतना कि ‘चलो जो होगा देखा जाएगा’ और मैं अकेले उनके साथ खड़ा हो गया।

और पता है मुसीबत से ज़रा-सा निकलते ही उन्होंने क्या किया ?

वे मुझे उसी भीड़, उसी समाज, उसी समुदाय, उसी व्यवस्था, उसी बेईमानी, उसी माफ़िया से बनाके रखने के फ़ायदे बताने लगे जिनके खि़लाफ़....

जैसे वे कोई नयी बात बता रहे हों...

उन्होंने यह भी नहीं सोचा कि अगर मैं उसी मानसिकता का प्रतिनिधि होता तो मैं अकेला उनके साथ खड़ा कैसे हो जाता !

अगर मैं उसी बेईमानी को पसंद करता होता तो मैं शुरु से ही बेईमानों के साथ होता, उनके साथ नहीं .....



इतना ज़रुर कहूंगा कि अकेला तो मैं अकसर रहा पर अब अकेलेपन से डर नहीं लगता, अकेलापन अच्छा लगने लगा है। 



-संजय ग्रोवर
15-02-2018

गुरुवार, 8 फ़रवरी 2018

प्रायोजित


PHOTO by Sanjay Grover


सुना है प्रायोजित मंथन से प्रायोजित अमृत और प्रायोजित ज़हर निकला।

पहले तो प्रायोजितजन ने ख़ुदको देवताओं और राक्षसों में बांट लिया ( कहीं बाद में कोई झगड़ा न पड़ जाए)।

तब काम आसान हो गया।


और राक्षसों और देवताओं ने विष और अमृत आधा-आधा बांट लिया।

दोनों के हिस्से में आधा-आधा विष और आधा-आधा अमृत आया।

तब विष और अमृत एक-दूसरे के प्रभाव और दुष्प्रभाव से नष्ट हो गए।

इसके बाद देवतओं और राक्षसों ने भी आपस में महाभारत कर लिया और विनष्ट हो गए।

अब बचा हाभारत जहां सिर्फ़ लाशें बची रह गईं।

कभी-कभी वे आपस में लड़तीं हैं।

अपना टाइम पास करतीं हैं। 


( प्रायोजित स्वतःस्फ़ूर्तों को समर्पित )


-संजय ग्रोवर
08-02-2018

मंगलवार, 6 फ़रवरी 2018

हम तो हैं इंसान कि हम तो डिप्रेशन में रहते हैं


ग़ज़ल


होगे तुम भगवान कि हम तो फ्रस्ट्रेशन में रहते हैं
हम तो हैं इंसान कि हम तो डिप्रेशन में रहते हैं

तुमने ही भगवान बनाया, तुम्ही खोलने पोल लगे
आपकी हरक़त अपनी हैरत, डिप्रेशन में रहते हैं


हमने सच्ची कोशिश की पर मौक़े पर तुम ले गए श्रेय
सच का यह अपमान हुआ हम डिप्रेशन में रहते हैं

इतनी ऊंच और नीच बनाके तुम्ही कहोगे प्रेम करो !!
तुम्ही करोगे मौज अगर हम डिप्रेशन में रहते हैं !!

बाहर संविधान का पर्दा अंदर सब नाजायज़ खेल
तिसपर बाहर अंदर सारे डिप्रेशन में रहते हैं

ग़म, नफ़रत, अवसाद यही तो सच्चाई का हासिल है
सच बोलो क्यों इंसां अकसर  डिप्रेशन में रहते हैं ?

आपके पागलपन ने हमको इस हालत में पहुंचाया
हम क्या बिलकुल पागल थे जो डिप्रेशन में रहते हैं ?


-संजय ग्रोवर
06-02-2018

शनिवार, 20 जनवरी 2018

पहले करता है ज़िक़्रे-आज़ादी/माफ़िया तब ग़ुलाम करता है

ग़ज़ल

इससे जो मिलके काम करता है
माफ़िया एहतिराम करता है

तुम्हारा डर है माफ़िया की ख़ुशी
माफ़िया ऐसे काम करता है

पहले करता है ज़िक़्रे-आज़ादी
माफ़िया तब ग़ुलाम करता है

हिंदू, मुस्लिम हैं सब क़ुबूल इसे
माफ़िया आदमी से डरता है

नाम, पैसा, रुआब क्या चहिए
माफ़िया इंतज़ाम करता है


माफ़िया के जो काम आ जाए
नाम उसके इनाम करता है

माफ़िया से मिला लो हाथ अगर
माफ़िया ओस जैसे झरता है

तुम भले शब्द एक ही बोलो
माफ़िया अर्थ चार करता है

माफ़िया दाएं भी है बाएं भी
माफ़िया चमत्कार करता है

माफ़िया कितना तो अकेला है
मुझ अकेले पे वार करता है

आपमें दम है अगर, शक़ करलो
माफ़िया सबसे प्यार करता है

माफ़िया है, जवाब क्यों देगा!
माफ़िया बहिष्कार करता है 

माफ़िया को शरम नहीं आती
वो तो बस शर्मसार करता है

माफ़िया यूं बड़ा ही सामाजिक
सारे पीछे से काम करता है

माफ़िया इसका, उसका, सबका है
जो भी उसको सलाम करता है

ख़ुद कोई क्यों तमाम होगा भला
माफ़िया सबका काम करता है


-संजय ग्रोवर
20-01-2018




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