बुधवार, 25 फ़रवरी 2015

कमबैक

व्यंग्य

लड़का लड़की को चाहता है।

एक रास्ता तो यह है कि वह यह बात उससे सीधे ही कह दे।

लेकिन वह फ़िल्में बहुत देखता है। कुछ स्पेशल होना चाहिए, वरना लड़की भी उसे क्यों भाव देगी ? दिखना चाहिए कि वह अपनी दोस्त-मंडली का हीरो है।

वह एक दोस्त को राज़ी करता है-लड़की जब सुनसान गली से गुज़रेगी, तू उसे थोड़ा-सा छेड़ देना, मैं तुझे एकाध थप्पड़ मारकर उसे बचा लूंगा।

अहसानों से दबा, परिभाषाओं में पका, परंपराओं में पगा दोस्त, दोस्ती की ख़ातिर राज़ी होता है।

यहां तक की कहानी का आइडिया शायद कई लोगों को है, इसमें कुछ नया है भी नहीं।

नया यह होता है कि थप्पड़ कुछ ज़ोर से लग जाता है और दबे हुए दोस्त के भीतर सोए इंसान का ईमान और स्वाभिमान जाग उठता है-

वह बदले में और ज़ोर से दो जड़ देता है।

यह तो इस लड़के ने सोचा ही नहीं था, अब क्या हो !?

वह लड़का शरीर से तगड़ा है, इसने अगर चार मारे तो मामला बहुत बिगड़ जाएगा।

और कुछ समझाने की कोशिश की तो लड़की को भी सब पता लग जाएगा-

आगे क्या होगा ? क्या उसका कमबैक हो पाएगा ? या लड़की समझ जाएगी और दोस्त की तरफ़ झुक जाएगी ? या दोनों को गुडबाय कहेगी और तीसरे और चौथे से भी बचेगी जब तक ख़ुदको और दुनिया को ठीक से जान न ले ?

आप क़यास लगाईए, मुझे तो मालूम है।

-संजय ग्रोवर
25-02-2015


रविवार, 8 फ़रवरी 2015

किसने कहा कि मतदान मत करना !

व्यंग्य

हर बार ही होता है कि चारों तरफ़ से मानो आकाशवाणी-सी होने लगती है कि भाईओ, बहिनो, दोस्तो, मित्रों, व्यूअर्स एण्ड फ्रेंड्स्.....मतदान ज़रुर करना, यह आपका राष्ट्रीय कर्त्तव्य है, मतदान नहीं करेंगे तो आप जागरुक नहीं हैं, आप गद्दार हैं, आपको शिक़ायत करने का हक़ नहीं है। एक आदमी 104 साल का होकर भी मतदान करने आया, एक महिला बीमार थी किसीकी पीठ पर लटककर मतदान करने आई.....और आप हैं कि.......

अरे टीवी वाले भैया, ऐंकर दीदी, ऐसे न लताड़ो कि मतदान न करनेवाला इतना अपराधबोध महसूस करने लगे कि टीवी के नीचे सर देकर आत्महत्या कर ले। हमें क्या मालूम कि मतदान में क्या-क्या जादू है, किस टाइप की मेहनत है ? जब तुम कहते हो कहते हो कि लोग ड्राइंगरुम से बाहर नहीं निकलते तो मुझे लगने लगता है जैसे मतदान करने के लिए रास्ते में दस-पांच पहाड़ चढ़ने पड़ते होंगे, नदी में उतरना पड़ता होगा, मल्लयुद्ध करना पड़ता होगा.....। बुरा न मानना, कई बार मतदान करने गया हूं, सब्ज़ी ख़रीदने जितनी मेहनत भी नहीं लगती।

भैया जी, दीदी जी, अगर कोई सारे टैक्स देता है, सारे बिल ठीक से भरता है, किसीकी ज़मीन नहीं घेरता, लड़की नहीं छेड़ता, दहेज़ नहीं लेता, बलात्कार नहीं करता.....कोई काम नियम और क़ानून के खि़लाफ़ नहीं करता तो वोट न देने भर से वो मरने के क़ाबिल हो जाएगा क्या !? और वोट देना इतना ही महान काम है तो ये ‘राइट टू रिजेक्ट’ वाला आयटम क्यों निकाला है भाई !? अगर कोई घर बैठे ही रिजेक्ट कर सकता है तो वो बेचारा सिर्फ़ आपका कैमरा भरने के लिए अपना काम छोड़कर यह भरती की ड्यूटी करे ?

जितना पढ़ते हो, उसका एकाध प्रतिशत वक़्त सोचने में भी लगाया करो, यार! यूंही डराते रहते हो।

एक आदमी अगर बैंक में फ़ॉर्म 15 जी ठीक से भरके आता है और फिर भी बार-बार उसका टैक्स काट लिया जाता है तो वो सिर्फ़ इसलिए शिक़ायत न करे कि उसने वोट नहीं दिया था!? कोई नागरिक अगर बिजली का बिल पूरी ईमानदारी से भरता है और फ़िर भी उसका बिल ज़्यादा आता है या वोल्टेज़ अप-डाउन होने से आए दिन उसको नुकसान होता हो तो शिकायत करने के लिए उसका बिल भरना काफ़ी नहीं है क्या ? अगर आप वोट देने को आधार बनाएंगे तो कलको आप यह भी कह सकते हैं कि जिस पार्टी को वोट दिया था उसीके पास जाकर शिक़ायत करो। तभी तो यह होता है कि बिल न भरनेवाले भी ‘अपनी पार्टी’ के जीतने से ख़ुश होते हैं। बहुत-से लोगों के ‘पक्ष’ और ‘विचारधारा’ का आधार तो यही बन गया लगता है, ऊपर-ऊपर वे कुछ भी कहें।

किस टाइप के लोग हो तुम यार !?

और जिन्होंने वोट दिया हो वो कुछ भी करें !? टैक्स चुराएं, बिल न दें, दहेज़ लें, आयकनों, सेलेब्रिटियों की उल्टी-सीधी बातों पर हां-हां करें, मूढ़ हिलाएं, अंट-संट कुछ भी करें! वोट देते ही सब सही हो जाएगा !? इधर सेल्फ़ी लगी नहीं कि उधर आदमी महान हुआ नहीं! वो दो मिनट आदमी की 5 साल की ज़िंदग़ी का फ़ैसला करेंगे।

माफ़ करना, हमें ऐसी अतार्किक बातें किसीकी भी समझ में नहीं आतीं। मेरी बात मानो, कपड़े-वपड़े, टाई-स्कीवी पहनना अच्छा है, होंठों को ख़ास ढंग से मुड़न-घुमन देकर उच्चारण करने में भी बुराई नहीं, अच्छा समझ में आता है, पर दिन में पांच मिनट सोचने के लिए भी निकाला करो तो कोई फांसी पर नहीं लटका देगा।

बुरा मत मानना ज़्यादा पक जाता हूं तो कभी-कभी थोड़ा टपक जाता हूं।

-संजय ग्रोवर
08-02-2015


ब्लॉग आर्काइव