गुरुवार, 31 दिसंबर 2015

शौक़े-मशहूरी भी ग़ज़ब है जनाब!

ग़ज़ल

किसीने दी जो उनको ग़ाली है-
क्या उनकी फ़िल्म आनेवाली है !?
16-12-2015

शौक़े-मशहूरी भी ग़ज़ब है जनाब!
ख़ूब तरक़ीब भी निकाली है 

मूर्ख आपस में उलझ जाएंगे-
आपकी मौज आनेवाली है
31-12-2015

वो जो नक़ली हैं, सर पे बैठे हैं
जो बिठाए, बेचारा जाली है !?

आप छेड़ें तो ये हुनर है जनाब
और वो दूसरा, मवाली है !?
16-12-2015

-संजय ग्रोवर
31-12-2015



रविवार, 13 दिसंबर 2015

दर्द बांटने वाले

व्यंग्य

शायद चेख़व की कहानी है-

एक तांगेवाला है जो बहुत दुखी है और अपना दुख किसीसे बांटना चाहता है। पूरे दिन वह इसकी कोशिश करता है मगर किसीके पास उसके लिए वक़्त नहीं है। अंत में वह अपने घोड़े से अपना दर्द बांटता है और रो पड़ता है।

लेकिन अंत में चेख़व शायद यह बताना भूल गए हैं कि जो आदमी पूरे दिन गधों से दर्द बांटने की कोशिश करता रहा, अंत में उसने एक घोड़े से दर्द बांट लिया तो कौन-सी आफ़त आ गई!?

दोनों ही तो जानवर हैं। 

-संजय ग्रोवर
13-12-2015

सोमवार, 2 नवंबर 2015

नाम छिलके के जैसे उतर जाएंगे

ग़ज़लनुमां

काम अपना हम कर जाएंगे
मर जाएंगे तो मर जाएंगे

हम जैसे कभी जो बिगड़ जाएंगे
देख लेना कि कितने सुधर जाएंगे

जान जाएगी जब आसमां का असल
प्यारी धरती के पांव उखड़ जाएंगे
31-10-2015

एक लम्हा भी तो नहीं जी पाएंगे
वो जो जीने को सारी उमर जाएंगे

काम हमने किए नाम तुम ओढ़ लो
नाम छिलके के जैसे उतर जाएंगे
02-11-2015



-संजय ग्रोवर
02-11-2015


सोमवार, 19 अक्तूबर 2015

आसमान से गिरी रे हड्डी

ग़ज़ल

आसमान से गिरी रे हड्डी
बच्च कबड्डी बच्च कबड्डी

गंग में थूके जमन में मूते
मांएं घिस-घिस धोएं चड्ढी

इसे टीपकर, उसे चाटकर
हुई जवां नोटों की गड्डी

चचा-ताऊ सब लूट ले गए
ताली-सीटी भरें फिसड्डी

आधी इसकी, आधी उसकी
गिरी कटोरे में जो हड्डी

-संजय ग्रोवर
19-10-2015


शनिवार, 17 अक्तूबर 2015

शाम को दोनों वहीं मिलेंगे

ग़ज़ल़

उनका इनसे समझौता है
घिन का घिन से समझौता है
13-07-2014

ज़रा चुभाना, बड़ा दिखाना
ख़ून का पिन से समझौता है

इधर भी छुरियां, उधर भी छुरियां
और मक्खन से समझौता है
17-10-2015

नामुमकिन कुछ कहां रहा अब
सब मुमक़िन है, समझौता है

शाम को दोनों वहीं मिलेंगे
रात का दिन से समझौता है
13-07-2014




-संजय ग्रोवर
17-10-2015



सोमवार, 12 अक्तूबर 2015

समझे!

लघुव्यंग्य

बेईमान झगड़ रहे थे।
ईमानदार चक्कर में आ गया।
बेईमानों ने समझाया कि हममें से किसी एक के पक्ष में नारा लगाओ।
उसने कहा पहले देख तो लूं, कौन सच्चा है ?
उन्होंने कहा सच्चा-वच्चा छोड़, हम जो कहते हैं वो कर, मेरी तरफ़ नही तो उनकी तरफ़ हो जा, बस किसी तरफ़ हो जा।
और अगर मैं किसीकी भी तरफ़ न होऊं तो।
तो हम तुझे किसी एक का अंधा समर्थक घोषित कर देंगे और मिलकर पीटेंगे, समझा।
समझ गया।

-संजय ग्रोवर

मंगलवार, 22 सितंबर 2015

चालू

लघुकथा  

उन्होंने जाल फेंका।

शिकार किसी तरह बच निकला।


यूं समझिए कि ख़ाकसार किसी तरह बच निकला।


भन्ना गए। सर पर दोहत्थड़ मारकर बोले, ‘‘तुम तो कहते थे भोला है। देखो तो सही साला कितना चालू आदमी है।’’


-संजय ग्रोवर

('संवादघर' से साभार)

गुरुवार, 3 सितंबर 2015

सुनो घोड़ो

लघुव्यंग्य

जो भी मुझपर दांव लगाएगा, शर्त्तिया हारेगा।
क्योंकि मैं कोई घोड़ा नहीं हूं, आदमी हूं। 
पूरी तरह आज़ाद एक आदमी।


-संजय ग्रोवर
03-09-2015

गुरुवार, 30 जुलाई 2015

इतना ही कर दो

लघुव्यंग्य

ईमानदार आदमी रास्ते से निकल रहा था।

चौक पर बेईमान बैठे थे, आदतन छेड़ने लगे-

‘‘भैय्या क्या मिला ईमानदारी से, ईमानदार तो हम कहलाते हैं, रेडियो-टीवी पे बुलाए जाते हैं, अख़बार हमारे गुन गाते हैं, तमग़े हम पर लगाए जाते हैं.....बोलो-बोलो....

‘न मैं टीवी पर आता हूं न अख़बार में, न तो नाम पाता हूं न ईनाम पाता हूं, न तुम पर ध्यान देता हूं न बदनामी पर......फिर भी ईमानदार हूं.....यही मेरी उपलब्धि है, यही मज़ा है.....तुम इतना ही करके दिखा दो !’

ईमानदार आदमी कहते हुए अपने रास्ते निकल गया।

-संजय ग्रोवर
31-07-2015


गुरुवार, 23 जुलाई 2015

औक़ात

छोटी कहानी

वे अलग-अलग टीमें बना कर लड़ाई-लड़ाई खेल रहे थे।

तभी वह वहां आन पहुंचा।

‘आओ न, तुम भी हमारे साथ खेलो, ए में जाओगे कि बी में.....’ उन्होंने रिक्वेस्ट की।

‘नहीं....नहीं.....यह मैं नहीं खेल पाऊंगा.....’

‘क्यों नहीं, तुम कहो तो तीसरी टीम बना दें.....’

‘नहीं, देखिए, आप लोगों ने तो खेल-खेल में ही एक-दूसरे के कपड़े तक फ़ाड़ डाले हैं, मुंह तक नोच लिए हैं, माफ़ कीजिएगा.....

‘पर लोग तो हमारे खेल से ख़ुश हैं, वे तो इसे नक़ली नहीं मानते....’

‘आपने किन लोगों से पूछा है, कहीं वे भी.....ख़ैर, मैं चलता हूं...

‘यह तो नख़रे दिखा रहा है, बड़ा घमंडी है, ख़ुदको जाने क्या समझता है, और किसीसे कहा होता तो कबका गोद में आ बैठा होता, इसको तो सबक सिखाना पड़ेगा.....

और सब मिलकर उसपर टूट पड़े।

अब उन्हें बिलकुल असली लड़ाई जैसा मज़ा आ रहा था।

-संजय ग्रोवर
23-07-2015

बुधवार, 15 जुलाई 2015

काम और नाम: क्या आपको मंज़ूर है

व्यंग्य

एक पुराना, कुछ दरमियाना-सा घर।

एक दस्तक।

दरवाज़ा खुलता है-

जी कहिए ?

देखिए हम इस सिलसिले में आए थे मिर्ज़ा मालिक़ के काम पर कुछ काम कर सकें.....उनका नाम और काम भी सलीक़े से दुनिया के सामने आए.....

जी आईए, तशरीफ़ रखिए, क्या लेंगे, ठंडा या गर्म.......

जी बस हम चाहते हैं कि आपकी इजाज़त मिल जाए तो हम जल्द से जल्द काम शुरु करें......

ठीक है, बेटा ज़रा मिर्ज़ा साहब का......

जी अभी लाता हूं.....

देखिए, यह मिर्ज़ा साहब का वसीयतनामा है, उन्होंने परोपकारी और सामाजिक लोगों के लिए कुछ हिदायतें, कुछ शर्त्तें बताई हैं.....

जी हिदायतें! शर्त्तें! ........बताईए, फ़रमाईए....कुछ अच्छा ही कहा होगा उन्होंने.....

हां, उनका कहना है कि चूंकि आप जैसे लोग निस्वार्थ भाव से, दूसरों को तवारीख़ में जगह दिलाने के लिए काम करते हैं, तो पहली शर्त्त यह है कि आप इस काम से कोई कमाई नहीं करेंगे या फ़िर कमाई करेंगे तो उसमें आपका कोई हिस्सा नहीं होगा, वह कमाई मिर्ज़ा साहब के तय किए लोगों और संस्थाओं में बांटी जाएगी और उसके बारे में किसी क़िस्म की जानकारी आपको नहीं दी जाएगी। क्या आपको मंज़ूर है ?

जी आगे पढ़िए, आगे पढ़िए.....

आगे उनका कहना है कि चूंकि मिर्ज़ा साहब के साथ-साथ आपका भी नाम होगा जबकि आप यह काम निस्वार्थ भाव से कर रहे हैं इसलिए इस काम के प्रदर्शन के दौरान आपका नाम कहीं भी प्रदर्शित नहीं किया जाएगा, अगर नाम प्रदर्शित करना ज़रुरी ही हो तो उसके लिए आपको अलग से पैसा देना होगा जो कि मिर्ज़ा साहब के तय किए लोगों को दिया जाएगा। क्या आपको मंज़ूर है ?

जी आगे पढ़िए, पूरा पढ़िए, मैं सुन रहा हूं......

आगे मिर्ज़ा का कहना है कि बाज़ लोग ज़िंदा फ़नकारों की मौजूदगी में ही उनके काम में फेरबदल कर देते हैं इसलिए पूरे काम के दौरान मिर्ज़ा के तय किए चार आदमी आपके काम पर नज़र रखेंगे। क्या आपको मंज़ूर है ?

जी क्या-क्या कहा है मिर्ज़ा साहब ने.....बेटा ज़रा देखना बाहर.....रिक्शावाला चला तो नहीं गया ? ........

आगे मिर्ज़ा साहब का कहना रहा कि चूंकि इस दुनिया से रुख़्सत हो चुके फ़नकारों की ग़ैरहाज़िरी में उनके बारे में बिना किसी वाज़िब अथॉरिटी की परमिशन के, लोग तोड़-मरोड़ के कुछ भी बना डालते हैं। मिर्ज़ा साहब का कहना है कि मृत्त व्यक्ति की इजाज़त के बिना किए जानेवाले इस शर्मनाक़ सिलसिले पर बैन लगे और इसपर एक सख़्त क़ानून बने, सख़्त सज़ा हो...... जिसके बनाने में आप मदद करें........इसमें यह होगा कि मृत्त फ़नकार का तय किया पैनल जब इजाज़त देगा तभी.........

जी ग़ज़ब-ग़ज़ब की शर्त्तें हैं मिर्ज़ा साहब की, मैं कल वक़्त लेकर आऊंगा और आराम से इनपर बात करुंगा। अभी क्या है कि रिक्शेवाला बेचारा निकल जाएगा.........

जी ज़रुर, कल किस वक़्त आएंगे आप....क्या नाम है आपका, निस्वार्थ साहब ?........


-संजय ग्रोवर
15-07-2015

गुरुवार, 25 जून 2015

गुरुवार, 11 जून 2015

जाली बनाम अदृश्य सर्टीफ़िकेट

जाली सर्टिफ़िकेट देने का सबसे ज़्यादा चलन साहित्य में रहा है। ये सर्टीफ़िकेट और इन्हें जारी करनेवाली संस्थाएं अमूर्त्त क़िस्म की होतीं हैं। इन अमूर्त्त सर्टीफ़िकेटों को ‘आर्शीवाद’, ‘हौसला-अफ़ज़ाई’, ‘पुरस्कार’, ‘समीक्षा’, ‘प्रोत्साहन’ जैसे नामों के तहत जारी किया जाता है।

इसकी मूलप्रेरणा सर्टीफ़िकेटजारीकर्त्ताओं को ‘अपना आदमी’, ‘ख़्याल रखनेवाला आदमी’, ‘सहयोग करनेवाला आदमी’, ‘अपनी बिरादरी का आदमी’, ‘अपने जैसा आदमी’, 
‘मिलते-जुलते रहने वाला आदमी‘, ‘सबसे पटाके रखनेवाला आदमी’, ‘इस हाथ ले, उस हाथ दे वाला आदमी’  जैसे साहित्य के मूलतत्वों से मिलती है। भारतीय साहित्य बाज़ार में इन अमूर्त्त संस्थाओं की ढेरों दुकानें अलग-अलग नामों से चलतीं रहीं हैं। 

आजकल ये पूरे प्राणपण से फ़ेसबुक पर अपना बाज़ार जमाने की कोशिश में जुटीं हैं। इनकी प्रकट विनम्रता देखकर लगता है कि आप अगर सहयोग करें तो साहित्य की ये चलती-फ़िरती यूनिवर्सिटियां होम डिलीवरी की सेवा भी प्रदान करतीं होंगीं।

इनकी सबसे बड़ी ख़ासियत यह है कि आप चाहें न चाहें, पर ये ज़बरदस्ती आ-आकर आपको सर्टीफ़िकेट देतीं हैं। आप कहतें रहें कि भई आप कौन!? हमारी सर्टीफ़िकेट में दिलचस्पी ही नहीं है, मगर ये नहीं मानतीं। इनके संस्कार बड़े तगड़े हैं। ये नाराज़ हो जातीं हैं। ये कहतीं हैं कि अगर हमसे सर्टीफ़िकेट न लोगे तो हम प्रचारित करेंगे कि तुम सर्टीफ़िकेट के लायक ही नहीं हो।

अभी पीछे एक-दो पागलों ने बोल दिया कि यूनिवर्सिटी जी, हम वाक़ई लायक नहीं हैं, बल्कि लायक होने में हमें शर्म आने लगी है, और आप जिस लायक हो वो आप कर ही रही हो, फ़िर इतनी परेशान क्यों हो ?

ऐसा सुनकर यूनिवर्सिटी और परेशान हो गई, परेशान होकर अपने संस्थापक के पास पहुंच गई कि गुरुजी, पागल तो ऐसा-ऐसा बोल रहा है, अब क्या जवाब देना है ?

अब देखो, लौटकर आती है तो क्या कहती है, यूनिवर्सिटी ?

वैसे न ही आए तो अच्छा है।

वरना पढ़े-लिखे अनपढ़ो की तरह पागल भी पढ़े-लिखे पागलों में तब्दील न हो जाएं।



-संजय ग्रोवर
11-06-2015

शनिवार, 6 जून 2015

ईश्वर बनाम परदा

व्यंग्य

ईश्वर कभी सामने क्यों नहीं आता, वह परदे में क्यों रहता है ?

1. वह अपने ही बनाए लोगों से डरता है.

2. वह शर्मीला है, बहुत ज़्यादा शर्मीला है.

3. उसकी सोच बहुत पिछड़ी हुई है.

4. वह इस व्यवहारिक दुनिया की सर्दी और गर्मी बर्दाश्त नहीं कर सकता, इसलिए ख़्वाबों-ख़्यालों में रहना पसंद करता है.

5. उसे हिंदी, अग्रेज़ी, चीनी, जापानी, फ्रेंच, जर्मन.....कोई भाषा नहीं आती.....वह बात कैसे करेगा ?

6. ईश्वर के कपड़े मैले हो गए हैं, उसने ऑनलाइन ऑर्डर दे रखा है और नये कपड़ों का इंतज़ार कर रहा है.....

7. ईश्वर डरता है कि लोग उसे पहचानेंगे कैसे! क्योंकि सारी दुनिया में उसकी इतनी अलग़-अलग़ तरह की तस्वीरें डिस्ट्रीब्यूट की गई हैं कि किसी एक तस्वीर की शक़्ल दूसरी तस्वीर से नहीं मिलती. और असली ईश्वर को किसीने देखा नहीं है.

8. ईश्वर मिठाई से डरता है, वह जानता है कि लोग उसकी मूर्तियों तक को मिठाई के अलावा कुछ नहीं देते। ऊपर से उसकी जान-पहचान में कोई अच्छा डॉक्टर नहीं है जो डाइबिटीज़ का इलाज जानता हो.

9. ईश्वर बीमार है और इस हालत में लोगों के सामने आया तो लोगों का विश्वास उसपर से उठ जाएगा.

10. असलियत ईश्वर नहीं है असलियत तो वह परदा है जिसके पीछे उसे बनानेवालों का यह राज़ छुपा है कि ईश्वर सिर्फ़ एक झूठ है.

???

-संजय ग्रोवर


05-06-2015

रविवार, 3 मई 2015

तय करो किधर के बाबा हो

अर्धव्यंग्य

आदमी अपना कोई पक्ष-विपक्ष तय कर ले तो बहुत से झंझटों से मुक्त हो जाता है-जैसे सोच-विचार, तार्किकता, जीवनमूल्य, इंसानियत, संवेदना...

अगर आप पितावादी हैं तो पिता आपसे कहेंगे कि बेटा, ज़रा अपनी मम्मी का सर काट लाओ, और उनकी बात पूरी होने से पहले ही आप मां का सिर प्लेट में सलाद की तरह सजा लाएंगे।

मां का भी छोड़िए, अगर आप गुरुवादी हैं, श्रद्धावादी हैं, आदरवादी हैं तो गुरु के कहने पर अपना ही अंगूठा ऐसे काट लेंगे जैसे आइसक्रीम के स्लाइस बना रहे हों।

वैसे आमतौर पर जो लोग पक्षवादी और प्रतिबद्धतावादी बने घूमते हैं, ध्यान से देखिए तो पाएंगे कि वे अपना पक्ष भी ठीक से तय नहीं कर पाए होते। ये एक ही सांस में न्याय की भी बात करते हैं और दोस्ती निबाहने की भी। ये एक ही बार में ईमानदारी को भी साधना चाहते हैं और दुनियादारी को भी। इन अजूबों के क़रतब इन्हींके जैसे लोगों को भाते भी बहुत हैं। मगर सवाल यह है कि अगर आपका दोस्त ही बेईमान है तो या तो आप दोस्त के साथ खड़े हो सकते हैं या न्याय के। अगर आपकी ख़ुदकी ही कोई दिलचस्पी ईमानदारी में नहीं है तो आप अपने किसी ईमानदार रिश्तेदार का साथ पूरे मन से नहीं दे सकते। पहले आप ख़ुद तो तय करलें कि आप न्याय के पक्ष में हैं या रिश्तेदारी के, ईमानदारी को प्राथमिकता देंगे कि दुनियादारी को! जब आप ख़ुद तय कर लेंगे तो दूसरों से भी तय करवा लीजिएगा।

वरना पक्ष तो उन लोगों का भी तय था जिन्होंने सामूहिक बलात्कार की शिकार, गांव-भर में बहिष्कृत भंवरीदेवी नामक स्त्री से कहा कि तुम्हारे आरोपी बलात्कार कर ही नहीं सकते क्योंकि वे तो ऊंची(!) जाति के हैं। भैया कहीं इसी तरह के कट्टर पक्षधर न बन जाना। कहीं बिना दाढ़ी और बिना चोगेवाले बाबा न बन जाना जो सूट-बूट और टाई लगाकर कथित पिछड़ी जातियों को न्याय के नाम पर ‘श्राप’नुमां चीज़ें ‘प्रोवाइड’ कराते रहते हैं।

यूं भी आजकल पैकिंग की कला इतनी इम्प्रूव हो गई है कि पूछिए ही मत। पैकिंग प्रगतिशीलता की होती है, निकलता अंदर से बाबा है। पैकिंग एडुकेटेड की रहती है, निकलता फिर भी बाबा है। पैकिंग सूटेड-बूटेड रहती है, बरामद फिर बाबा होता है। पैकिंग डिबेटर की चढ़ी है, निकल रहा है फिर-फिर बाबा। पैकिंग लैक्चरर की है, प्रोफ़ेसर की है, एंकर की है, इंजीनियर की है, डॉक्टर की है, पीसीएस की है, आईएएस की है...और निकल रहें हैं बाबा ही बाबा।

ऐसे में तय क्या करें? यही कि अपने अंदरवाले बाबा पर पैकिंग कौन-से वाले पक्ष की चढ़ानी है?

-संजय ग्रोवर
03-05-2015


शनिवार, 2 मई 2015

Make Money Online

अपने ब्लॉग पर कहीं बस इतना लिख दीजिए-


या कुछ यूं लिख दीजिए-


या यूं लिख दीजिए-


फिर देखिए ख़ज़ाने के खोजी कहां-कहां से होकर आपके ब्लॉग पर पहुंचते हैं।

अगर आप कभी इस रास्ते पर निकले हैं तो क्या लेकर लौटे हैं, चाहें तो यहां शेयर कर सकते हैं।

(यह पागलपन सिर्फ़ आपके मनोरंजन के लिए है, सीरियसली न लें)

शनिवार, 25 अप्रैल 2015

सोडा

लघुकथा

लगता था उसकी बाइक में ब्रेक ही नहीं हैं।

पहली रेडलाइट वह बिना सिगनल की परवाह किए क्रॉस कर गया।

दूसरी पर दो बार तथाकथित राष्ट्रपिता को क़ुर्बान किया।

फ़िर तीसरी, चौथी, पांचवीं.......

पर इसबार उससे पहले शायद उसके (अफ़साने नहीं) बाइक के नंबर पहुंच गए थे-

‘क्या बात है भई, सांड की तरह क्यों भगा रहा है, लाइमलाइट में आना है क्या ?’

‘अरे! आपको कैसे पता चला ? मैंने तो घर पर भी नहीं बताया!’

‘अरे, हमें ना पता चलेगा! कौन-सा लाइम लाइट वाला है जो हमारी नज़रों से नहीं ग़ुज़रा। चल ढीला हो और निकल्ले। बाद में तो पहचानेगा भी नहीं।’


*                                    *                                      *                                         ’                                  ’

‘अरे के हो गया द्रोगाजी?’

‘तुम्हे बड़ी जल्दी पड़ी है सब जानने की! तसल्ली रक्खो, उसे लाइम लाइट में पहुंचने दो, फिर देखना इससे भी बढ़िया सरकस दिखाएगा। चलो निकलो, काम करने दो।’

-संजय ग्रोवर
26-04-2015

शुक्रवार, 24 अप्रैल 2015

हवा में कलंडर

व्यंग्य

मुझे कलंडर टाइप के ‘विचारक’ काफ़ी पसंद आते हैं।

वे वॉल पर लटके-लटके बताते हैं कि आज किसकी पुण्यतिथि है, आज किसका जन्मदिन है, किसकी आज शादी हुई थी, पिछले साल इसी दिन किसके यहां कीर्तन हुआ था, किसने किस दिन तौलिया ख़रीदा था, किसने कितने बजे ऑमलेट खाया था, किस पेड़ के नीचे अंडे दिए थे। ये बड़े दिलचस्प  लोग होते हैं, भगतसिंह का जन्मदिन हो तो उन्हींके एक लेख में से चार लाइनें उठाकर कोट कर देते हैं। जैसे आप किसीके जन्मदिन पर उसीकी जेब काटकर गिफ़्ट ख़रीदें, और उसको ऐसे भाव से भेंट करें जैसे अपनी कमाई से ख़रीदकर लाएं हों।

इनमें से कईयों को प्रगतिशील कहाने का बड़ा शौक़ रहता है। ऐसे में उक्त अदा बहुत काम आती है। किसी प्रगतिशील विचारक के विचार उठाकर, अपने नाम से, बड़ी अदा के साथ उसीके मुंह पर मारे जा सकते हैं, बिलकुल ऐसे जैसे मानों ख़ुद प्रगतिशील हों और ख़ुद ही चिंतन किया हो। कई बार इन्हें यह तक ध्यान नहीं रहता कि दो दिन पहले इन्हीं विचारों का ‘ख़ुलकर’ विरोध किया था। यह बहुत आसान हो जाता है जब आपके पीछे कई-कई जातियों, दलों, गुटों, धर्मों की भेड़ें तालियां बजाने को तत्पर और तैनात हों। यह अलग बात है कि बिना परंपरा के ये प्रगतिशीलता की बात तक करने में अक्षम होते हैं। जिस दिन प्रगतिशीलता की खुजली ज़्यादा उठे, ये पहले जाकर अपनी क़िताब खोलकर ढूंढते हैं कि हमारी परंपरा में प्रगतिशीलता है या नहीं। सोचने की बात यह है कि इनकी परंपरा में प्रगतिशीलता का शौक़ीन जो पहला आदमी रहा होगा उसने कौन-सी परंपरा में से ढूंढकर प्रगतिशीलता निकाली होगी।

शौक़ीन प्रगतिशीलता हमेशा किसी नक़ली और कमज़ोर कट्टरपंथ की तलाश करती है, क्योंकि उसीकी तुलना में इसकी प्रगतिशीलता संभव हो पाती है। इनकी प्रगतिशीलता का आधार यह होता है कि ‘देख तू सात मंदिरों में गया, मैं छै में गया इसलिए मैं प्रगतिशील हूं। तू देसी लेखकों को चुराता है, मैं विदेशी को चुराता हूं इसलिए मैं प्रगतिशील हूं। अगर देसी को चुराता भी हूं तो उसीपर ऐसा हमला करता हूं जैसे मैं कोई बहुत बहादुर आदमी हूं। दरअसल तो तू भी जानता है कि जिनकी वजह से यहां कट्टरपंथ जड़े जमाए बैठा है, उनका हाथ मुझपर न होता तो नक़ली प्रगतिशीलता साधने में भी मेरा पाजामा ढीला हो जाता है।’

अपने यहां काम का बड़ा महत्व है। क्या पता कब किससे काम पड़ जाए, किसका ‘आर्शीवाद’ काम आ जाए। क्या पता कलको तौलिया ही बड़ा(!) आदमी(!) बन जाए! बुढ़ापे में काम आएगा कि नहीं। वैसे भी धर्म, वाद और धाराएं ज़्यादातर को तो बचपन में ही बूढा बना देतीं हैं। बचे-ख़ुचों का काम तथाकथित जवानी में कर डालतीं हैं।
वैसे भी अपने यहां मरे हुओं की आलोचना बुरी बात मानी जाती है। यहां प्रसिद्ध लोगों की बुराई भी हर कोई नहीं करता। प्रसिद्ध लोग बड़़े लोग भी तो होते हैं। इनका लठैत बनने का अपना एक सुख है। ऐसा लगता है जैसे सचमुच कोई क्रांति हो रही हो। क्रांति की भ्रांति में न जाने कितनों का जीवन सार्थक हो गया वरना तो कैसा सूना-सूना सा लगता था।

बहरहाल, फ़ोटोकॉपी मशीनों की धड़ाधड़ प्रगतिशीलता में कलंडरों की आमद जारी है। आप भी कोई दुकान चुन सकते हैं जिसपर लगा साइन बोर्ड प्रगतिशीलता का भ्रम देता हो। फिर आपको प्रगतिशीलता पर विचार तक करने की ज़रुरत नहीं पड़ेगी। आप जो भी करेंगे वही प्रगतिशीलता माना जाएगा। यहां तक कि जिसे आप ही फ़ासीवाद कह रहे होंगे उसीसे टॉफ़ी ले लेके खाते रहेंगे, उसे भी प्रगतिशीलता माना जाएगा।

कोई इसे गुंडाग़र्दी, दादागिरी, मौक़ापरस्ती या तानाशाही कहता है तो कहता रहे। आप सुनिए ही मत, ढीठ बने रहिए। उल्टे उसे डांट दीजिए जो ऐसा नहीं करता।

बेईमानों के ‘स्वर्ग’ में इसीको संघर्ष कहते हैं।


-संजय ग्रोवर

24-04-2015


बुधवार, 1 अप्रैल 2015

भगवान और बेईमान

व्यंग्य



करना कुछ नहीं है बस एक शब्द बदल देना है और फिर सब कुछ एकदम स्पष्ट है।

मान लीजिए कोई शक्ति है जो दुनिया को चला रही है, उसका एक नाम रख लेते हैं-बेईमान। अब देखिए-

*बेईमान सर्वशक्तिमान है, सर्वत्रविद्यमान है।

*बेईमान की मर्ज़ी के बिना पत्ता भी नहीं हिलता।

*बेईमान कण-कण में विराज़मान है। उसके रुप अलग़-अलग़ हैं पर बेईमान एक ही है। क्या पक्ष, क्या विपक्ष, सब तरफ़ बेईमान की सत्ता है।

*या बेईमान! तेरा ही आसरा।

*मैं सिर्फ़ बेईमान से डरता हूं।

*स्साल्ला! बेईमान को नहीं मानता!? देखना एक न एक दिन ज़रुर पागल हो जाएगा।

*अगर बेईमान नहीं है तो लोग मर कैसे जाते हैं ? आदमी मरता है इससे पता चलता है कि बेईमान है।

*बेईमान की लाठी में आवाज़ नहीं होती।

*सब बेईमान के हाथ में है, जो वो चाहेगा, वही होगा।

*संसार से भागे फिरते हो, बेईमान को तुम क्या पाओगे ?

*एक न एक दिन सबको बेईमान के पास जाना है।

*तुम्हे कभी सफ़लता नहीं मिल सकती क्योंकि तुम बेईमान को नहीं मानते।

*ये नास्तिक कितने दुष्ट हैं! बेईमान तक को नहीं मानते।

*रात सपने में स्वयं बेईमान ने मुझे दर्शन दिए, ज़रुर आज कुछ न कुछ फ़ायदा होगा।

*उसे देखो, कितना बड़ा आदमी है मगर आज भी नियमित रुप से बेईमान के पास जाता है।

*बेईमान ने हमें कितना कुछ दिया है, उसका शुक्रिया तो अदा करना ही चाहिए।

*बेईमान के चरणों में बैठकर जो सुख मिलता है, दुनिया की किसी शय में नहीं मिलता।

..................इस तरह आप पाएंगे कि दुनिया की सारी समस्याएं सुलझ गई हैं, सारे रहस्य मिट गए हैं, कोई कन्फ़्यूज़न बाक़ी नहीं है।

-संजय ग्रोवर
01 अप्रैल 2015

         बेईमान, ईश्वर के भेद, रहस्यवाद, नास्तिक, भगवान, God, satire, व्यंग्य, तंज

गुरुवार, 26 मार्च 2015

जानवरों के पूर्वज

व्यंग्य



कुत्ता मुझे मिल गया, मैं रोटी डालने ही वाला था कि एक आदमी बीच में टपका, ‘‘आप कुत्ते को रोटी नहीं डाल सकते’’

‘‘क्यों !?’’ हैरानी में मैंने पूछा।

‘‘कुत्ते हमारे हैं, हमसे पूछे बिना आप किसी तरह का संबंध आप इनसे नहीं रख सकते......’’

‘‘कुत्ते तुम्हारे हैं! वह कैसे ?’’ मुंह मेरा पहले ही हैरानी से ख़ुल गया था, उसी ख़ुले मुंह से मैंने पूछा।

वह थोड़ा सकपकाया, ‘‘तुम्हें नहीं मालूम ? यह क़िताब पढ़ो, इसमें लिखा है कुत्ते हमारे हैं...’’

‘‘अजीब बात है! मैं एक क़िताब लिख लाता हूं जिसमें लिखा होगा दुनिया के सारे जानवर मेरे हैं, तो तुम मान लोगे क्या ?‘‘ मैंने पूछा।

‘‘यह क़िताब आदमी की लिखी नहीं है, ऐसी-वैसी क़िताब नहीं है यह, समझे!’’

‘‘मैंने तो आदमी के सिवाय किसीको लिखते देखा नहीं, यह क्या कुत्ते ने लिखी है!?’’

‘‘कुत्ता कैसे लिखेगा? तुम बेवक़ूफ़ हो क्या ?’’

‘‘तो ठीक है कुत्ते से पूछ लेते हैं कि वह किसका है?’’

‘‘फिर वही बेवक़ूफ़ी की बात! कुत्ता कैसे बताएगा ?’’

‘‘फिर कैसे पता लगे कि कुत्ता तुम्हारा है, इसका कहीं रजिस्ट्रेशन वगैरह होता है क्या? तुम मुझे वहीं ले चलो, मैंने और भी कई चीज़ें पता लगानी हैं, कोई कहता है बकरी मेरी है, कोई कहता है सांड मेरा है, कोई कहता है सांप मेरा है, कोई कहता है नारंगी रंग मेरा है, कोई कहता है लाल रंग मेरा है, कोई सफ़ेद, कोई नीले, कोई पीले, कोई हरे को अपना बताता है! यह रंगों, जानवरों, शब्दों की मालक़ियत तय कैसे होती है, कहां होती है!? तुम प्लीज़ मुझे वहीं ले चलो।’’

‘‘तुम पागल हो क्या ?’’

‘‘मैं क्यों पागल हूं, मैं तो कुत्ते को बिना भेदभाव के रोटी दे रहा था, तुम्हीने आकर लफ़ड़ा खड़ा कर दिया कि कुत्ता मेरा है! अब बता नहीं पा रहे कि तुम्हारा कैसे है ? अगर तुम्हारा है तो तुम्हारे घर में क्यों नहीं रहता ? तुम्हारे सारे फ़ैमिली-मेम्बर्स इसी तरह सड़कों पर घूमते हैं क्या ? तुम्हारा कैसे है, इसकी तो शक़्ल भी तुमसे नहीं मिलती, तुम्हारी तरफ़ तो देख भी नहीं रहा, यह तो रोटी में इंट्रेस्टेड है, कहो तो तुम्हारा और इसका डीएनए टेस्ट करा लें, ख़र्चा मैं कर दूंगा ?’’

‘‘तुम कहां से आए हो? कैसी बातें करते हो?’’

‘‘मैं तो बात ही कब कर रहा था, तुमने ख़ामख़्वाह टांग घुसेड़ी इसलिए करनी पड़ रही है। तुम हटो मेरे और कुत्ते के बीच में से, जाकर अपनी क़िताबें पढ़ो और क़िताब में घुसकर जानवरों पर हक़ जमाओे, रंगों पर क़ब्ज़ा करों, शब्दों की बंदरबांट करो। तुम यही कर सकते हो, यही करो, जाओ।’’

-संजय ग्रोवर
26-05-2015



बुधवार, 4 मार्च 2015

प्रतीक, प्रतिनिधि, प्रचार और प्रहसन

दो-तीन लफ़ंडरों ने सारा आसमान सर पर उठा रखा था।

पहले वे ख़ुद ही एक-दूसरे को चपत मारकर भाग जाते, फ़िर शोर मचा देते कि ‘हाय! कोई हमें मार गया, हाय! कौन मार गया!?’

दोपहर को वे छानबीन करते कि आखि़र वह कौन है जो रोज़ाना हमें मारकर भाग जाता है।

शाम को वे घोषणा करते कि संकट टल गया है, अब कोई परेशानी नहीं आएगी, यह नहीं होना चाहिए था पर हुआ मगर अब नहीं होगा।

और अगले संकट की तैयारी में जुट जाते।

पिछले कई सालों से कॉलोनी का सारा चंदा इसीमें ख़र्च हुआ जा रहा था!

कॉलोनी को भी खाज-खुजली में ख़ूब आनंद आता था।

वह भी चंदा दिए जा रही थी।
और रोए जा रही थी कि हाय! कहीं कुछ नहीं होता! आखि़र क्यों नहीं होता ?

-संजय ग्रोवर
04-03-2015


बुधवार, 25 फ़रवरी 2015

कमबैक

व्यंग्य

लड़का लड़की को चाहता है।

एक रास्ता तो यह है कि वह यह बात उससे सीधे ही कह दे।

लेकिन वह फ़िल्में बहुत देखता है। कुछ स्पेशल होना चाहिए, वरना लड़की भी उसे क्यों भाव देगी ? दिखना चाहिए कि वह अपनी दोस्त-मंडली का हीरो है।

वह एक दोस्त को राज़ी करता है-लड़की जब सुनसान गली से गुज़रेगी, तू उसे थोड़ा-सा छेड़ देना, मैं तुझे एकाध थप्पड़ मारकर उसे बचा लूंगा।

अहसानों से दबा, परिभाषाओं में पका, परंपराओं में पगा दोस्त, दोस्ती की ख़ातिर राज़ी होता है।

यहां तक की कहानी का आइडिया शायद कई लोगों को है, इसमें कुछ नया है भी नहीं।

नया यह होता है कि थप्पड़ कुछ ज़ोर से लग जाता है और दबे हुए दोस्त के भीतर सोए इंसान का ईमान और स्वाभिमान जाग उठता है-

वह बदले में और ज़ोर से दो जड़ देता है।

यह तो इस लड़के ने सोचा ही नहीं था, अब क्या हो !?

वह लड़का शरीर से तगड़ा है, इसने अगर चार मारे तो मामला बहुत बिगड़ जाएगा।

और कुछ समझाने की कोशिश की तो लड़की को भी सब पता लग जाएगा-

आगे क्या होगा ? क्या उसका कमबैक हो पाएगा ? या लड़की समझ जाएगी और दोस्त की तरफ़ झुक जाएगी ? या दोनों को गुडबाय कहेगी और तीसरे और चौथे से भी बचेगी जब तक ख़ुदको और दुनिया को ठीक से जान न ले ?

आप क़यास लगाईए, मुझे तो मालूम है।

-संजय ग्रोवर
25-02-2015


रविवार, 8 फ़रवरी 2015

किसने कहा कि मतदान मत करना !

व्यंग्य

हर बार ही होता है कि चारों तरफ़ से मानो आकाशवाणी-सी होने लगती है कि भाईओ, बहिनो, दोस्तो, मित्रों, व्यूअर्स एण्ड फ्रेंड्स्.....मतदान ज़रुर करना, यह आपका राष्ट्रीय कर्त्तव्य है, मतदान नहीं करेंगे तो आप जागरुक नहीं हैं, आप गद्दार हैं, आपको शिक़ायत करने का हक़ नहीं है। एक आदमी 104 साल का होकर भी मतदान करने आया, एक महिला बीमार थी किसीकी पीठ पर लटककर मतदान करने आई.....और आप हैं कि.......

अरे टीवी वाले भैया, ऐंकर दीदी, ऐसे न लताड़ो कि मतदान न करनेवाला इतना अपराधबोध महसूस करने लगे कि टीवी के नीचे सर देकर आत्महत्या कर ले। हमें क्या मालूम कि मतदान में क्या-क्या जादू है, किस टाइप की मेहनत है ? जब तुम कहते हो कहते हो कि लोग ड्राइंगरुम से बाहर नहीं निकलते तो मुझे लगने लगता है जैसे मतदान करने के लिए रास्ते में दस-पांच पहाड़ चढ़ने पड़ते होंगे, नदी में उतरना पड़ता होगा, मल्लयुद्ध करना पड़ता होगा.....। बुरा न मानना, कई बार मतदान करने गया हूं, सब्ज़ी ख़रीदने जितनी मेहनत भी नहीं लगती।

भैया जी, दीदी जी, अगर कोई सारे टैक्स देता है, सारे बिल ठीक से भरता है, किसीकी ज़मीन नहीं घेरता, लड़की नहीं छेड़ता, दहेज़ नहीं लेता, बलात्कार नहीं करता.....कोई काम नियम और क़ानून के खि़लाफ़ नहीं करता तो वोट न देने भर से वो मरने के क़ाबिल हो जाएगा क्या !? और वोट देना इतना ही महान काम है तो ये ‘राइट टू रिजेक्ट’ वाला आयटम क्यों निकाला है भाई !? अगर कोई घर बैठे ही रिजेक्ट कर सकता है तो वो बेचारा सिर्फ़ आपका कैमरा भरने के लिए अपना काम छोड़कर यह भरती की ड्यूटी करे ?

जितना पढ़ते हो, उसका एकाध प्रतिशत वक़्त सोचने में भी लगाया करो, यार! यूंही डराते रहते हो।

एक आदमी अगर बैंक में फ़ॉर्म 15 जी ठीक से भरके आता है और फिर भी बार-बार उसका टैक्स काट लिया जाता है तो वो सिर्फ़ इसलिए शिक़ायत न करे कि उसने वोट नहीं दिया था!? कोई नागरिक अगर बिजली का बिल पूरी ईमानदारी से भरता है और फ़िर भी उसका बिल ज़्यादा आता है या वोल्टेज़ अप-डाउन होने से आए दिन उसको नुकसान होता हो तो शिकायत करने के लिए उसका बिल भरना काफ़ी नहीं है क्या ? अगर आप वोट देने को आधार बनाएंगे तो कलको आप यह भी कह सकते हैं कि जिस पार्टी को वोट दिया था उसीके पास जाकर शिक़ायत करो। तभी तो यह होता है कि बिल न भरनेवाले भी ‘अपनी पार्टी’ के जीतने से ख़ुश होते हैं। बहुत-से लोगों के ‘पक्ष’ और ‘विचारधारा’ का आधार तो यही बन गया लगता है, ऊपर-ऊपर वे कुछ भी कहें।

किस टाइप के लोग हो तुम यार !?

और जिन्होंने वोट दिया हो वो कुछ भी करें !? टैक्स चुराएं, बिल न दें, दहेज़ लें, आयकनों, सेलेब्रिटियों की उल्टी-सीधी बातों पर हां-हां करें, मूढ़ हिलाएं, अंट-संट कुछ भी करें! वोट देते ही सब सही हो जाएगा !? इधर सेल्फ़ी लगी नहीं कि उधर आदमी महान हुआ नहीं! वो दो मिनट आदमी की 5 साल की ज़िंदग़ी का फ़ैसला करेंगे।

माफ़ करना, हमें ऐसी अतार्किक बातें किसीकी भी समझ में नहीं आतीं। मेरी बात मानो, कपड़े-वपड़े, टाई-स्कीवी पहनना अच्छा है, होंठों को ख़ास ढंग से मुड़न-घुमन देकर उच्चारण करने में भी बुराई नहीं, अच्छा समझ में आता है, पर दिन में पांच मिनट सोचने के लिए भी निकाला करो तो कोई फांसी पर नहीं लटका देगा।

बुरा मत मानना ज़्यादा पक जाता हूं तो कभी-कभी थोड़ा टपक जाता हूं।

-संजय ग्रोवर
08-02-2015


रविवार, 18 जनवरी 2015

बजने का बजना



(एक काल्पनिक व्यंग्यात्मक बातचील)

घंटी बजती है।

दरवाज़ा खुलता है।

सामने एक ऐसी चेहरा दिखाई देता है जिसे संभ्रांत और सौम्य वगैरहा कहा जाता है। साथ में रंग-बिरंगे कपड़े पहने लोगों का हुजूम है, सरों पर टोपियां, हाथों में पैम्फ़लेट आदि हैं। कई युवा हैं।

‘जी कहिए !’

‘दरवाज़ा खोलिए, हम ज़रा आपको समझाने आए हैं....’

‘जी ज़रुर समझाईए...’

‘देखिए यह बहुत अच्छा वक़्त आया है कुछ करने का, ईश्वर ने यह दिन दिखाया है कि हम अपने वतन के लिए कुछ करें, आप हमारा समर्थन करें, हम मिलकर काम करेंगे....’

‘यह तो बहुत अच्छी बात है कि हम मिलकर काम करें. मगर लगता है आपको यह ख़्याल किसी ईश्वर की वजह से आया है...मैं भी उस ईश्वर से मिलना चाहूंगा जिसने आपको इतना अच्छा ख़्याल दिया है....वह आपके साथ आया होगा.....’

‘आप कैसी बातें कर रहे हैं, ईश्वर क्या किसीके साथ आता है......’

‘कमाल है! कल भी एक भाईसाहब आए थे और ख़ुदको ईश्वर का आदमी बताकर समर्थन मांग रहे थे, ईश्वर उनके साथ भी नहीं था....!

‘देखिए, हमारे पास बहुत वक्त नहीं है, ईश्वर इस तरह साथ नहीं आता.....’

‘आप मुझे समझाने आए हैं, ज़रा ठीक से समझाईए, मैं समझने को तैयार हूं, आप थोड़ा वक़्त निकालकर समझाईए कि ईश्वर किस तरह आपके साथ है, अगर आपके साथ है भी सही तो मैं आपका साथ क्यों दूं ? मैं तो किसी ईश्वर को जानता नहीं, कभी मिला नहीं। मिला भी होता तो भी मैं जान-पहचान-जुगाड़ को योग्यता नहीं मानता।’

‘ईश्वर की इ़च्छा है कि हम मिलकर काम करें, ईश्वर के बारे में जिस तरह आप सोच रहे हैं उस तरह नहीं सोचा जाता.....’

‘आपसे किसने कहा कि मैं ईश्वर के बारे में सोचता हूं, मुझे जब ज़रुरत होती है काम कर लेता हूं, ईश्वर से क्या लेना !? आप समझााईए कि अगर आपको लड़ने के लिए किसी ईश्वर ने भेजा है तो बाक़ी लोगों को किसने भेजा है ? ईश्वर क्या कोई चरित्र प्रमाण पत्र है ? कोई डिग्री है ? कोई अनुभव है ? कोई योग्यता है ? क्या है आखि़र ?’

‘देखिए, ऐसे हम एक-एक आदमी को समझाने लगे तो बहुत मुश्क़िल हो जाएगी.....ऐसे कैसे चल पाएगा.......’

‘आप एक को तो समझाईए, बाक़ी भी समझ जाएंगे। आप मुझे बस इतना साबित कर दीजिए कि आपको इस काम के लिए ईश्वर ने चुना है, हांलांकि मैं इसे कोई योग्यता नहीं मानता, मैं तो ऐसे व्यक्ति को बेहतर मानता हूं जो अपनी मरज़ी से आया हो.....चलिए आप इतना ही बता दीजिए कि आपसे पहले जो लोग थे उन्हें किसने भेजा था........’

‘देखिए, ये सब बातें हम बाद में भी कर सकते हैं.......वैसे आप करते क्या हैं ?’

‘आपको काफ़ी देर से यह ख़्याल आया! मैं जब जो ठीक लगे कर लेता हूं, वह कुछ भी जिससे दूसरों की हानि न हो......’

‘हुम्म......फ़िर तो आपको ईश्वर समझाना मुश्क़िल है......’

‘क्या आपको क़ानून की जानकारी है, न्याय का आयडिया है, इंसानियत का अंदाज़ा है ?

‘मतलब ?’

‘क्या आपको मालूम है कि आप जिस ईश्वर का हवाला देकर समर्थन मांग रहे हैं, उसे आप अगर साबित न कर पाएं तो आपका यह कृत्य धोखाधड़ी की श्रेणी में आएगा, इसके लिए सज़ा भी हो सकती है? क्या आपको मालूम है कि महिलाओं की जितनी समस्याएं हैं, सबकी जड़ में ऐसी क़िताबें और मान्यताएं हैं जिन्हें किसी ईश्वर द्धारा लिखा या चलाया बताया जाता है......आप तो स्वयं.....

‘ओफ्फ़ोह! आप तो भाईसाहब.....ग़लती हो गई कि आपकी घंटी बजा दी.....’

‘जी, मैं अजीब आदमी हूं, मुझे लगता है सभी को थोड़ा-थोड़ा अजीब होना चाहिए क्योंकि अपने यहां घंटियां अकसर ग़लत लोग बजाते रहे हैं, थोड़ा घंटिया बजाने वालों को भी बजाना ज़रुरी है कि नहीं, आप ही समझाईए, वरना तो जिसके भी हाथ घंटी लग जाएगी वही न्यायकर्त्ता बनके बैठ जाएगा। आप समझाईए कि क्या यही नहीं होता आ रहा? क्या यही नहीं होता चला जा रहा ?’

‘जी......’

‘जी, अगली बार अगर आप बिना ईश्वर का हवाला दिए आ सकें तो ज़रुर घंटी बजाईएगा, धन्यवाद। इसलिए भी धन्यवाद कि आप घंटी बजाकर रुके रहे वरना बहुत-से तो घंटी बजाकर भाग ही जाते हैं। धन्यवाद।’

(यह सब काल्पनिक है, किसी जीवित व्यक्ति का किसी मृत व्यक्ति से कोई संबंध नहीं है)

-संजय ग्रोवर

18-01-2015

ब्लॉग आर्काइव