गुरुवार, 24 जुलाई 2014

आखि़र यह विद्रोह है तो है क्या ?

अंततः विद्रोही को शॉल ओढ़ाई गई, माला पहनाई गई, पुरस्कार दिया गया, प्रसिद्ध किया गया, टीवी पर उसका साक्षात्कार दिखाया गया।

हारकर समाज ने उसको स्वीकार लिया, उसका संघर्ष सफ़ल हुआ, अब वह एक स्थापित और मान्यता प्राप्त विद्रोही है। अब उसे उन सभी कार्यक्रमों में बुलाया जाता है जिनका वह पहले बहिष्कार करता था। वह उन सभी आयोजनों में शामिल होता है जिनमें वे सब रीति-रिवाज-कर्मकांड किए जाते हैं जिनसे वह पहले चिढ़ता था।

सत्य सफ़ल हुआ।

पर अगर सत्य को यही सब करना था तो वह विद्रोह किसके खि़लाफ़ कर रहा था !?

ज़माना तो ज़रा नहीं बदला था मगर सत्य ख़ुद बदल गया था!

यह सत्य की जीत थी या समाज की ?

-संजय ग्रोवर

25-07-2014

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