शनिवार, 26 जनवरी 2013

भ्रष्टाचार में एकाधिकार

रेखाकृति: संजय ग्रोवर
भ्रष्टाचार हर किसीके बस की बात नहीं। इसके लिए एक ख़ास क़िस्म की मेरिट चाहिए होती है। ख़ासी तपस्या करनी पड़ती है। दुनियादारी को भी साधना पड़ता है। भ्रष्टाचार के पवित्र लोक में ऋषित्व-मुनित्व का दर्ज़ा ऐसे ही नहीं मिल जाता।
जिन लोगों को यह हुनर परंपरा, ख़ानदान और (अपनी ही बनाई) संस्कृति से मिला होता है, उनकी हनक ही कुछ और होती है। इनमें आत्मविश्वास इतना ग़ज़ब का होता है कि ये भ्रष्टाचार करने के साथ-साथ ही उसे मिटाने के तरीके भी छाती ठोंककर हर प्रचार-माध्यम पर बताते चलते हैं। भ्रष्टाचार में इनकी परिपक्वता का अंदाज़ा आप इसीसे लगा सकते हैं कि भ्रष्टाचार हटाने के ज़्यादातर कार्यक्रमों के मुहूर्त्त भी इनके बिना संभव नहीं हो पाते। ये अपना काम होशियारी से करते हैं और, सुनते हैं कि कोई सुबूत नहीं छोड़ते। छोड़ भी दें तो ज़्यादा फ़र्क नहीं पड़ता क्योंकि परंपरा भी इनकी, ख़ानदान भी इनके, संस्कृतियां भी इनकी यानि चारों तरफ़ अपने ही बंधु-बांधव बैठे हों तो घर की बात घर में ही बनी रहती है। बिगड़ने वाला और बिगाड़ने वाला, पकड़ा जाने वाला और पकड़ने वाला अगर गुरु-चेला हों तो फिर कोई कर भी क्या लेगा!
इसके विपरीत नये, शौक़िया और कच्चे भ्रष्टाचारी मात खा जाते हैं। वे पकड़-पकड़ जाते हैं। वे बुद्धू नहीं समझते कि लौंग-लास्टिंग और फ़ुल-प्रूफ़ भ्रष्टाचार करना हो तो उसके साथ कुछ नैतिक कहानियां, भले काल्पनिक और बेसिर-पैर की हों, जोड़नी पड़तीं हैं, कुछ कर्म-कांड विकसित करने पड़ते हैं, कई बार अध्यात्मिक टच भी देना पड़ता है, ठीक से ठगने के लिए विनम्रता और सभ्यता सीखनी पड़ती है। ख़ानदानी मेरिट और प्रेरक परंपरा के अभाव में अधपके भ्रष्टाचारी बीच रास्ते ही अपने घुटने तुड़ा बैठते हैं। ये नहीं समझते कि भ्रष्टाचार में ठगी का रेश्यो जितना ज़्यादा होगा, पकड़ जाने की संभावनाएं उतनी ही कम होतीं जाएंगीं। शायद इसी वजह से सदियों से जमे भ्रष्टाचारी इन्हें अपने साथ उठने-बैठने लायक नहीं मानते। उनके नकपके व्यवहार से कुछ ऐसा भान होता है जैसे वे किसी कथित कल्पित उच्च जाति के हों और ये किसी कथित कल्पित नीची जाति के।
ज़ाहिर है कि उन्हें इस बात की तक़लीफ़ भी होती ही होगी कि जो धंधा हमने जनमोंजनम लगाकर इतनी मेहनत या तिकड़म वगैरह से जमाया, उसमें नये और अयोग्य लोग क्यों घुसे आ रहे हैं। कहीं ये हमारी भाषा और संस्कृति को नष्ट न कर दें।


-संजय ग्रोवर
27-01-2013

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